सोमवार, 25 दिसंबर 2017

कविता..✒
कभी-कभी

कभी-कभी बहुत भला लगता है-
चुप-चुप सब कुछ सुनना
और कुछ न बोलना।

कमरे की छत को
एकटक पड़े निहारना
यादों पर जमी धूल को महज बुहारना
कभी-कभी बहुत भला लगता है-

केवल सपने बुनना
और कुछ ना बोलना

दीवारों के उखड़े
प्लास्टर को घूरना
पहर-पहर धूप को बिसूरना
कभी-कभी बहुत भला लगता है

हरे बांस को घूरना
और कुछ न बोलना
कागज पर बेमानी
सतरों का खींचना
बिना मूल नभ छूती अमरबेल सींचना
कभी-कभी बहुत भला लगता है

केवल कलियां चुनना
और कुछ न बोलना।

अपने अंदर के अंधियारे में हेरना
खोई कोई उजली रेखा को टेरना
कभी-कभी बहुत भला लगता है

गुमसुम सब कुछ सुनना
और कुछ ना बोलना।।

उमाकान्त मालवीय
(प्रख्यात कवि)

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