कविता..✒
कभी-कभीकभी-कभी बहुत भला लगता है-
चुप-चुप सब कुछ सुनना
और कुछ न बोलना।
कमरे की छत को
एकटक पड़े निहारना
यादों पर जमी धूल को महज बुहारना
कभी-कभी बहुत भला लगता है-
केवल सपने बुनना
और कुछ ना बोलना
दीवारों के उखड़े
प्लास्टर को घूरना
पहर-पहर धूप को बिसूरना
कभी-कभी बहुत भला लगता है
हरे बांस को घूरना
और कुछ न बोलना
कागज पर बेमानी
सतरों का खींचना
बिना मूल नभ छूती अमरबेल सींचना
कभी-कभी बहुत भला लगता है
केवल कलियां चुनना
और कुछ न बोलना।
अपने अंदर के अंधियारे में हेरना
खोई कोई उजली रेखा को टेरना
कभी-कभी बहुत भला लगता है
गुमसुम सब कुछ सुनना
और कुछ ना बोलना।।
उमाकान्त मालवीय
(प्रख्यात कवि)
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