कविता...✒
भूले हुओं का गीत
बरसों के बाद कभी
हम तुम यदि मिलें कही,
देखें कुछ परिचित से
लेकिन पहचाने ना।
याद भी न आये नाम,
रूप,रंग ,काम,धाम,
सोचें, यह सम्भव है-
पर,मन में मानें ना।
हो न याद, एक बार
आया तूफान, ज्वार
बंद, मिटे पृष्ठों को-
पढने को ठाने ना।
बातें जो साथ हुई,
बातों के साथ गयीं,
आंखें जो मिली रहीं
उनको भी जानें ना।
गिरिजा कुमार माथुर
(प्रख्यात साहित्यकार)
कविता...✒
छाया मत छूना मन..✒
छाया मत छूना मन
होता है दुख दूना मन
जीवन में हैं सुरंग सुधियां सुहावनी
छवियों की चित्र-गन्ध फैली मनभावनी;
तन-सुगंध शेष रही, बीत गई यामिनी,
कुंतल के फूलों की याद बनी चांदनी।
भूली-सी एक छुअन
बनता हर जीवित क्षण
छाया मत छूना मन
होगा दुख दूना मन
यश है न वैभव है, मान है न सरमाया;
जितना ही दौड़ा तू उतना ही सरमाया।
प्रभुता का शरण-बिंब केवल मृगतृष्णा है,
हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्णा है।
जो है यथार्थ कठिन
उसका तू कर पूजन-
छाया मत छूना मन
होगा दुख दूना मन
दुविधा-हत साहस है, दिखता है पंथ नहीं
देह सुखी हो पर मन के दुख का अंत नहीं।
दुख है न चांद खिला शरद-रात आने पर,
क्या हुआ जो खिला फूल रस-बसंत जाने पर?
जो न मिला भूल उसे
कर तू भविष्य वरण,
छाया मत छूना मन
होगा दुख दूना मन।।।
कविता..✒
कभी-कभी
कभी-कभी बहुत भला लगता है-
चुप-चुप सब कुछ सुनना
और कुछ न बोलना।
कमरे की छत को
एकटक पड़े निहारना
यादों पर जमी धूल को महज बुहारना
कभी-कभी बहुत भला लगता है-
केवल सपने बुनना
और कुछ ना बोलना
दीवारों के उखड़े
प्लास्टर को घूरना
पहर-पहर धूप को बिसूरना
कभी-कभी बहुत भला लगता है
हरे बांस को घूरना
और कुछ न बोलना
कागज पर बेमानी
सतरों का खींचना
बिना मूल नभ छूती अमरबेल सींचना
कभी-कभी बहुत भला लगता है
केवल कलियां चुनना
और कुछ न बोलना।
अपने अंदर के अंधियारे में हेरना
खोई कोई उजली रेखा को टेरना
कभी-कभी बहुत भला लगता है
गुमसुम सब कुछ सुनना
और कुछ ना बोलना।।
उमाकान्त मालवीय
(प्रख्यात कवि)
कविता...✒
पल्लू की कोर दाब दांत के तले..✒
पल्लू की कोर दाब दांत के तले
कनखी ने किये बहुत वायदे भले।
कंगना की खनक
पड़ी हाथ हथकड़ी।
पांवो में रिमझिम की बेड़ियां पड़ी।
सन्नाटे में बैरी बोल ये खले,
हर आहट पहरु बन गीत मन छले।
नाजों में पले छैल सलोने पिया,
यूं न हो अधीर,
तनिक धीर धर पिया।
बंसवारी झुरमुट में सांझ दिन ढले,
आऊंगी मिलने मैं पिया दिया जले।।
उमाकान्त मालवीय
(प्रख्यात कवि)
एक चाय की चुस्की..✒
एक चाय की चुस्की
एक कहकहा
अपना तो इतना सामान ही रहा ।
चुभन और दंशन
पैने यथार्थ के
पग-पग पर घेर रहे
प्रेत स्वार्थ के ।
भीतर ही भीतर
मैं बहुत ही दहा
किंतु कभी भूले से कुछ ना कहा।
एक अदद गंध
एक टेक गीत की
बतरस भीगी संध्या
बातचीत की ।
इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नही सहा
छू ली है सभी, एक-एक इन्तहा।
एक कसम जीने की
ढेर उलझनें
दोनों गर नही रहे
बात क्या बने।
देखता रहा सब कुछ सामने ढहा
मगर कभी किसी का चरण नही गहा।।
उमाकान्त मालवीय
(प्रख्यात कवि)