रविवार, 24 दिसंबर 2017


एक चाय की चुस्की..✒

एक चाय की चुस्की
एक कहकहा
अपना तो इतना सामान ही रहा ।

चुभन और दंशन
पैने यथार्थ के
पग-पग पर घेर रहे
प्रेत स्वार्थ के ।
भीतर ही भीतर
मैं बहुत ही दहा
किंतु कभी भूले से कुछ ना कहा।

एक अदद गंध
एक टेक गीत की
बतरस भीगी संध्या
बातचीत की ।
इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नही सहा
छू ली है सभी, एक-एक इन्तहा।

एक कसम जीने की
ढेर उलझनें
दोनों गर नही रहे
बात क्या बने।
देखता रहा सब कुछ सामने ढहा
मगर कभी किसी का चरण नही गहा।।


उमाकान्त मालवीय
(प्रख्यात कवि)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें